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पाकिस्तान की राजनीति और सैन्य प्रतिष्ठान में उस वक्त उत्सव जैसा माहौल था जब सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस का न्योता मिला। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से उनकी भव्य मुलाकात को पाक मीडिया ने “सफल कूटनीतिक जीत” करार दिया। लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं अमेरिका ईरान पर हमला कर चुका है, और पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर अब मुनीर की तीखी आलोचना हो रही है।
नोबेल की पैरवी और दोहरी नीतियों पर सवाल
इस मुलाकात का सबसे विवादित पहलू यह रहा कि 18 जून 2025 को जनरल मुनीर ने ट्रंप से मुलाकात के दौरान उन्हें 2026 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित करने की पैरवी की थी। इसके बाद पाकिस्तान की PM शहबाज शरीफ सरकार ने आधिकारिक तौर पर नामांकन भेजा।
लेकिन जैसे ही ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने ईरान पर मिसाइल हमले शुरू किए, जनरल मुनीर की ‘शांति की कोशिशें’ सवालों के घेरे में आ गईं। अब पाकिस्तान के लोग पूछ रहे हैं कि क्या यही था आपका शांति का विजन, जिसमें एक युद्धरत नेता को नोबेल का दावेदार बना दिया गया?
Field Marshal Asim Muneer pic.twitter.com/l0JtumGbo1
— saleem albela (@SaleemalOffical) June 22, 2025
सोशल मीडिया पर गुस्से का सैलाब
पाकिस्तान में पत्रकार और आम नागरिक दोनों इस घटनाक्रम को लेकर मुखर हैं। पत्रकार अमीर अब्बास ने ट्वीट किया, “जिस ट्रंप को कभी पीएमएल-एन नेता ख्वाजा साद रफीक ने चंगेज खान और हिटलर कहा था, उसी को अब नोबेल देने की बात हो रही है। आखिर ये फैसले कौन करवा रहा है?”
Shame on Asim muneer not Pakistan,
— Abubakar Ijaz 🇵🇰 ⛎ (@AbubakarIjaz18) June 23, 2025
Pakistan Stands with Iran and Palestine
Asim is not Pakistan we are Pakistan https://t.co/MfxcmP4J9d
एक अन्य यूजर ने लिखा, “आसिम मुनीर को शर्म आनी चाहिए, पाकिस्तान को नहीं।” कुछ ने तो सीधे तौर पर कहा कि “जैसे जिया-उल-हक और मुशर्रफ उम्मा और इस्लामी भाईचारे को ताक पर रख चुके थे, वैसे ही अब मुनीर ने भी अमेरिकी हितों को प्राथमिकता दे दी।”
डॉलर की राजनीति या रणनीतिक मजबूरी?
जनरल मुनीर पर आरोप है कि उन्होंने पाकिस्तान के सैन्य हितों को अमेरिका के आर्थिक लाभ के लिए गिरवी रख दिया। आलोचकों का मानना है कि पाकिस्तान की सेना अब भी अमेरिकी डॉलर और रणनीतिक गठबंधनों को इस्लामी एकता से ऊपर रखती है।
‘शांति’ की राजनीति में हारी प्रतिष्ठा
जहां एक तरफ जनरल मुनीर खुद को शांति दूत की तरह पेश करना चाहते थे, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका के युद्ध में शामिल होते ही उनका चेहरा विवाद और असंतोष का प्रतीक बन गया है। इस पूरे घटनाक्रम ने साबित कर दिया कि कूटनीति और सच्चाई में अक्सर बड़ा फासला होता है—खासतौर पर तब, जब शांति का नाम लेकर रणनीतिक समर्थन जुटाया जा रहा हो।
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